मीराबाई का जीवन परिचय | Mirabai Biography in Hindi
राजस्थान की भक्ति परंपरा में मीराबाई का नाम अमर है। वे संत कवयित्री, कृष्ण भक्त और सगुण भक्ति की महान उपासक थीं। मीराबाई को “राजस्थान की राधा” कहा जाता है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में समर्पित कर दिया।
मीराबाई का जन्म और परिवार
मीराबाई का बचपन राजमहलों के वातावरण में बीता, लेकिन बचपन से ही उनका मन सांसारिक खेल-खिलौनों में नहीं लगा। वे श्रीकृष्ण की मूर्ति के साथ खेलतीं और उन्हें अपना आराध्य मानकर भक्ति भाव में डूब जाती थीं।
उनके गुरु पंडित गजाधर थे, जिन्होंने उन्हें शिक्षा प्रदान की। बाद में उन्हें “राजस्थान की राधा” के नाम से विख्याति मिली
मीराबाई का जन्म 1498 ईस्वी में वैशाख शुक्ल तृतीया (आखातीज) के दिन नागौर जिले के कुड़की गाँव (वर्तमान ब्यावर, राजस्थान) में हुआ था।
- पिता – रतन सिंह राठौड़ (बाजोली के जागीरदार)
- माता – वीर कँवर
- दादा – राव दूदा
- बचपन का नाम – पेमल
- गुरु (शिक्षक) – पंडित गजाधर
- उपनाम – राजस्थान की राधा
मीराबाई का विवाह और वैवाहिक जीवन
मीराबाई का विवाह सन् 1516 ईस्वी में मेवाड़ के शासक राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ। भोजराज वीर और योग्य राजकुमार थे, किंतु मीराबाई का मन विवाह के बाद भी सांसारिक जीवन में नहीं रमा।
बचपन से ही वे श्रीकृष्ण को अपने आराध्य और पति स्वरूप मान चुकी थीं। विवाह के बाद महल में रहते हुए भी उनका अधिकांश समय भजन, कीर्तन और भगवान कृष्ण की आराधना में बीतता था।
महल और समाज में कई बार उन्हें आलोचना और विरोध का सामना करना पड़ा। परिवारजनों को लगता था कि वे कुल-परंपराओं का पालन नहीं कर रही हैं। लेकिन मीराबाई ने किसी भी प्रकार का दबाव स्वीकार नहीं किया और कृष्ण-भक्ति के मार्ग पर अडिग रहीं।
भोजराज का निधन होने के बाद मीराबाई को और भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। राजमहल में उन्हें अनेक बाधाओं से गुजरना पड़ा, किंतु उन्होंने अपनी निष्ठा और भक्ति को कभी नहीं छोड़ा।
मीराबाई ने अपने जीवन के हर सुख-दुख को भक्ति के माध्यम से कृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया।
मीराबाई के आध्यात्मिक गुरु और भक्ति मार्ग
मीराबाई के जीवन में संतों का विशेष प्रभाव रहा। उनके आध्यात्मिक गुरु संत रैदास (रविदास) थे, जिन्होंने उन्हें भक्ति का सच्चा मार्ग दिखाया। संत रैदास जी की संगति में मीराबाई ने त्याग, समानता और ईश्वर प्रेम के महत्व को समझा।
इसके अलावा मीराबाई पर रूप गोस्वामी का भी प्रभाव रहा, जिन्होंने माधुर्य भाव की भक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। मीराबाई ने इसी मार्ग को अपनाते हुए श्रीकृष्ण को अपना प्रियतम और पति स्वरूप माना।
मीराबाई की भक्ति का स्वरूप सगुण भक्ति पर आधारित था। उन्होंने अपने भजन, पद और नृत्य के माध्यम से कृष्ण-भक्ति का संदेश दिया। उनका विश्वास था कि –
- ईश्वर की प्राप्ति के लिए जाति-पाति और ऊँच-नीच का भेद नहीं होना चाहिए।
- प्रेम, समर्पण और नाम-स्मरण ही सच्चे भक्ति के मार्ग हैं।
- भक्ति में स्त्री-पुरुष, अमीर-गरीब या ऊँच-नीच का कोई भेदभाव नहीं है।
मीराबाई की भक्ति माधुर्य भाव से पूर्ण थी। वे स्वयं को दासी और कृष्ण को अपने आराध्य मानकर भजन गाती थीं। उनके भजनों में प्रेम और समर्पण की गहरी झलक मिलती है
मीराबाई की प्रमुख रचनाएँ और साहित्यिक योगदान
मीराबाई केवल भक्त ही नहीं, बल्कि हिंदी और राजस्थानी साहित्य की महान कवयित्री भी थीं। उनके पदों और भजनों में कृष्ण प्रेम, भक्ति और आत्मिक समर्पण की झलक मिलती है। उनकी वाणी सहज, सरल और हृदयस्पर्शी है, जिसने जन-जन को भक्ति रस में डुबो दिया।
मीराबाई की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं –
- पदावली – भक्ति और कृष्ण प्रेम से भरे हुए पदों का संग्रह।
- नरसी मेहता की हुंडी – भक्ति और विश्वास का अद्भुत उदाहरण।
- रुक्मिणी मंगल – रुक्मिणी और श्रीकृष्ण के विवाह का काव्यात्मक वर्णन।
- सत्यभामाजी नू रुसणो – सत्यभामा और कृष्ण के संवादों पर आधारित।
- राग गोविंद – कृष्ण के प्रति समर्पित रागात्मक काव्य।
- मीरा री गरीबी – भक्ति और त्याग की अद्भुत झलक।
- गीत गोविंद की टीका – जयदेव के गीत गोविंद पर आधारित टीका।
इसके अलावा, मीराबाई के मार्गदर्शन में रतना खाती ने ब्रज भाषा में प्रसिद्ध रचना “नरसी जी रो मायरो” की रचना की।
साहित्यिक योगदान
- मीराबाई ने भक्ति को नृत्य, गीत और भजन के माध्यम से सरल और जनसुलभ बनाया।
- उनकी रचनाओं में भक्ति और माधुर्य भाव का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।
- उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों और बंधनों को तोड़ते हुए स्त्रियों को भी भक्ति और आध्यात्मिक मार्ग अपनाने की प्रेरणा दी।
मीराबाई की रचनाएँ आज भी हिंदी साहित्य और भक्ति साहित्य की अमूल्य धरोहर मानी जाती हैं।।
मीराबाई की भक्ति का स्वरूप और दर्शन
मीराबाई की भक्ति का स्वरूप पूर्णतः सगुण माधुर्य भाव भक्ति पर आधारित था। उन्होंने श्रीकृष्ण को अपना आराध्य, प्रियतम और पति स्वरूप माना। उनकी भक्ति में प्रेम, समर्पण और कृष्ण के प्रति अनन्य निष्ठा देखने को मिलती है।
भक्ति का स्वरूप
- माधुर्य भाव – मीराबाई ने स्वयं को दासी और कृष्ण को अपना प्रियतम मानकर भक्ति की।
- सगुण भक्ति मार्ग – उन्होंने मूर्त रूप में भगवान श्रीकृष्ण को पूजा और उनके प्रति अपना जीवन समर्पित किया।
- सरल साधना – भजन, नृत्य और कृष्ण स्मरण को उन्होंने भक्ति का मुख्य साधन बताया।
- समाज सुधार – उन्होंने जाति-पाति, ऊँच-नीच और भेदभाव का विरोध किया और सभी के लिए भक्ति का मार्ग खुला बताया।
मीराबाई का दर्शन
- ईश्वर प्रेम ही जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य है।
- सांसारिक बंधनों से ऊपर उठकर आत्मा को परमात्मा में मिलाना ही भक्ति का सार है।
- भक्त और भगवान के बीच कोई मध्यस्थ नहीं, केवल सच्चे प्रेम और विश्वास से ईश्वर की प्राप्ति संभव है।
- स्त्री और पुरुष दोनों को समान अधिकार है कि वे भक्ति मार्ग पर चल सकें।
मीराबाई का दर्शन आज भी लोगों को प्रेरित करता है कि भक्ति के मार्ग पर चलकर जीवन के हर दुःख और कष्ट को दूर किया जा सकता है।
मीराबाई का अंतिम जीवन और मृत्यु
मीराबाई ने अपना अधिकांश जीवन भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में समर्पित किया। महलों में विरोध और कठिनाइयों का सामना करने के बाद वे साधु-संतों की संगति में रहने लगीं और एक नगर से दूसरे नगर तक भक्ति का संदेश फैलाने लगीं।
अंतिम समय में मीराबाई गुजरात पहुँचीं। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम वर्ष गुजरात के डाकोर स्थित रणछोड़ मंदिर में व्यतीत किए। वहाँ वे पूर्णतः श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन हो गईं।
कहा जाता है कि डाकोर मंदिर में भजन-कीर्तन करते समय वे श्रीकृष्ण की मूर्ति में समा गईं और उनकी भौतिक देह का लोप हो गया। इसी कारण माना जाता है कि उनका देहावसान नहीं हुआ, बल्कि वे अपने आराध्य श्रीकृष्ण में विलीन हो गईं।
मीराबाई का महत्व और विरासत
मीराबाई भारतीय भक्ति आंदोलन की महान संत थीं। उन्होंने समाज की परंपराओं और रूढ़ियों को तोड़ते हुए भक्ति को जन-जन तक पहुँचाया।
महत्व
- स्त्रियों के लिए भक्ति और आध्यात्मिक जीवन का मार्ग खोला।
- जाति-पाति और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाई।
- भक्ति को गीत और नृत्य के माध्यम से सरल बनाया।
विरासत
- उनके भजन आज भी गाए जाते हैं।
- वे भक्ति काव्य की अमर कवयित्री हैं।
- उन्हें “राजस्थान की राधा” कहा जाता है।
मीराबाई से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्न (FAQ)
प्रश्न 1. मीराबाई का जन्म कब और कहाँ हुआ था?
उत्तर – मीराबाई का जन्म 1498 ईस्वी में वैशाख शुक्ल तृतीया (आखातीज) के दिन नागौर जिले के कुड़की गाँव (ब्यावर, राजस्थान) में हुआ था।
प्रश्न 2. मीराबाई के माता-पिता कौन थे?
उत्तर – इनके पिता रतन सिंह राठौड़ (बाजोली के जागीरदार) और माता वीर कँवर थीं।
प्रश्न 3. मीराबाई का बचपन का नाम क्या था?
उत्तर – मीराबाई का बचपन का नाम पेमल था।
प्रश्न 4. मीराबाई का विवाह किससे हुआ था?
उत्तर – 1516 ईस्वी में मीराबाई का विवाह मेवाड़ के शासक राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से हुआ था।
प्रश्न 5. मीराबाई के आध्यात्मिक गुरु कौन थे?
उत्तर – संत रैदास और रूप गोस्वामी मीराबाई के आध्यात्मिक गुरु थे।
प्रश्न 6. मीराबाई की प्रमुख रचनाएँ कौन-सी हैं?
उत्तर – मीराबाई की प्रमुख रचनाएँ हैं – पदावली, नरसी मेहता की हुंडी, रुक्मिणी मंगल, सत्यभामाजी नू रुसणो, राग गोविंद, मीरा री गरीबी, गीत गोविंद की टीका।
प्रश्न 7. मीराबाई को किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर – मीराबाई को “राजस्थान की राधा” कहा जाता है।
प्रश्न 8. मीराबाई का अंतिम समय कहाँ बीता?
उत्तर – मीराबाई ने अपने जीवन के अंतिम दिन गुजरात के डाकोर स्थित रणछोड़ मंदिर में बिताए।