बिजौलिया किसान आंदोलन
राजस्थान का इतिहास केवल शासकों और युद्धों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें किसानों के संघर्ष और बलिदान की भी गाथाएँ शामिल हैं। इन्हीं गाथाओं में एक प्रमुख है बिजौलिया किसान आंदोलन, जिसे राजस्थान का पहला संगठित एवं सबसे लंबे समय तक चलने वाला किसान आंदोलन माना जाता है। यह आंदोलन किसानों पर बढ़ते करों, बेगार और शोषण के खिलाफ एक ऐतिहासिक विद्रोह था।
बिजौलिया का परिचय
- महत्व : बिजौलिया राजस्थान के किसान आंदोलनों का केंद्र रहा, यहीं से राजस्थान का पहला संगठित किसान आंदोलन (बिजौलिया किसान आंदोलन) शुरू हुआ।
- स्थान : बिजौलिया वर्तमान में राजस्थान के भीलवाड़ा ज़िले में स्थित है।
- ऐतिहासिक स्थिति : बिजौलिया मेवाड़ राज्य का प्रथम श्रेणी का ठिकाना था।
- संस्थापक : बिजौलिया ठिकाने की स्थापना अशोक परमार ने की थी।
- मूल स्थान : अशोक परमार का मूल स्थान जगनेर था।
- खानवा युद्ध : 1527 ई. में खानवा युद्ध में अशोक परमार राणा सांगा की ओर से लड़ा खानवा युद्ध में अशोक परमार ने बड़ी वीरता दिखाई इससे प्रभावित होकर राणा को ने इसे ऊपरमाल की जागीर प्रदान की।
- 1527 ई. : राणा सांगा ने इसे परमारों को प्रसाद स्वरूप प्रदान किया।
- अन्य नाम : बिजौलिया को ऊपरमाल क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है।
- किसान जाति : यहाँ के अधिकतर किसान धाकड़ जाति से संबंधित थे।
- बिजोलिया ऊपरमाल का सदर मुकाम था।
बिजौलिया किसान आंदोलन की शुरुआत
- बिजौलिया किसान आंदोलन राजस्थान का पहला संगठित किसान आंदोलन था।
- बिजौलिया किसान आंदोलन 1897 से 1941 तक चला (लगभग 44 वर्ष)।
- इसे एक अहिंसक किसान आंदोलन माना जाता है।
- 1897 में ठिकानेदार ने किसानों से बेगार वसूली की, जिसका विरोध शुरू हुआ।
- 1905 में ठाकुर किशन सिंह की पुत्री के विवाह पर जबरन बेगार लगाई गई, जिसके बाद किसानों ने आंदोलन तेज किया।
- 1907 में किसानों ने बेगार देना बंद कर दिया।
बिजौलिया किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि
सन् 1894 ई. तक बिजौलिया के किसानों को जागीरदार ठाकुर राव गोविन्ददास से कोई विशेष शिकायत नहीं थी। उस समय बिजौलिया ठिकाने के ठाकुर राव गोविन्ददास का शासन था।
राव कृष्णसिंह का शासन
- 1894 ई. में राव गोविन्ददास की मृत्यु के बाद राव कृष्णसिंह (किशनसिंह) नया जागीरदार बना।
- कृष्णसिंह ने किसानों के प्रति कठोर नीति अपनाई और जागीर प्रबंधन में कई परिवर्तन किए।
- कृष्णसिंह ने किसानों पर 84 प्रकार के दमनकारी कर लगाए गए।
- साथ ही लाग, बाग, बेगार जैसी व्यवस्थाएँ और कठोर बना दी गईं।
किसानों का पहला विरोध
- राव कृष्णसिंह की नीतियों के विरुद्ध किसानों ने सबसे पहला आंदोलन 1895 ई. में किया।
- 1897 ई. में ऊपरमाल क्षेत्र के किसानों ने गंगाराम धाकड़ के मृत्युभोज के अवसर पर गिरधारीपुरा ग्राम में सामूहिक बैठकव विचार विमर्श किया।
- इस बैठक की प्रेरणा साधु सीताराम दास ने दी।
- किसानों की ओर से नानजी और ठाकरी पटेल को उदयपुर भेजा गया, ताकि वे महाराणा से ठिकानेदार के जुल्मों की शिकायत कर सकें।
महाराणा से शिकायत और परिणाम
- लगभग 6 माह बाद महाराणा ने किसानों से मुलाकात की और उनकी शिकायतों की जाँच के लिए राजस्व अधिकारी हामिद हुसैन को बिजौलिया भेजा।
- हामिद हुसैन ने अपनी रिपोर्ट में किसानों की शिकायतों को सही ठहराया, लेकिन राज्य सरकार ने उस पर कोई कार्यवाही नहीं की।
- इसका परिणाम यह हुआ कि राव कृष्णसिंह के हौसले और बढ़ गए तथा किसानों पर शोषण और तेज़ हो गया।
बिजौलिया किसान आंदोलन के प्रारंभिक चरण
नानाजी और ठाकरी पटेल का निर्वासन
- किसानों की ओर से उदयपुर जाकर शिकायत करने वाले नानाजी और ठाकरी पटेल को राव कृष्णसिंह ने दंडस्वरूप ऊपरमाल क्षेत्र से निर्वासित कर दिया।
- यह घटना किसानों में और अधिक असंतोष का कारण बनी।
चंवरी कर (1903 ई.)
- सन् 1903 ई. में राव कृष्णसिंह ने किसानों पर नया कर लगाया, जिसे “चंवरी कर” कहा गया।
- इस कर के अनुसार, पट्टे के हर व्यक्ति को अपनी बेटी के विवाह के अवसर पर 5 रुपए (रामप्रसाद व्यास के अनुसार 13 रुपए) ठिकाने को देना अनिवार्य था।
किसानों की प्रतिक्रिया
- चंवरी कर के विरोध में किसानों ने अपनी बेटियों की शादियाँ स्थगित कर दीं।
- कर के प्रकोप से बचने के लिए कई किसानों ने सीमावर्ती राज्यों में पलायन करना शुरू कर दिया।
- किसानों ने ठिकाने को लाग-बाग (कर) देना भी बंद कर दिया।
परिणाम : किसानों की अप्रत्याशित विजय
- किसानों के सामूहिक दबाव के कारण राव कृष्णसिंह को झुकना पड़ा।
- उसने चंवरी कर की राशि को आधा कर दिया।
- साथ ही, लगान वसूली की नीति बदली – अब उपज के आधे हिस्से की बजाय केवल 2/5 हिस्सा ही लिया जाने लगा।
यह किसानों की एक अप्रत्याशित विजय थी, जिसने आंदोलन को और मजबूती दी और किसानों को एकजुट होकर संघर्ष करने की प्रेरणा दी।
बिजौलिया किसान आंदोलन का अगला चरण
पृथ्वीसिंह का शासन (1906 – 1914 ई.)
- 1906 ई. में राव कृष्णसिंह की मृत्यु हो गई और उनके स्थान पर पृथ्वीसिंह बिजौलिया का स्वामी बना।
- पृथ्वीसिंह ने न केवल किसानों को मिली पुरानी छूटों को वापस ले लिया, बल्कि एक नया कर भी लगा दिया, जिसे “तलवार बंधाई” (उत्तराधिकार शुल्क) कहा गया।
- इस कर का बोझ किसानों पर डाल दिया गया।
किसानों का विरोध
- किसानों ने इस कर का कड़ा विरोध किया।
- साधु सीतारामदास, फतहकरण चारण और ब्रह्मदेव दाधीच के नेतृत्व में किसानों ने नारा दिया –
- “भूमि को नहीं जोतेंगे और भूमि कर नहीं देंगे।”
- किसानों ने सामूहिक रूप से खेती करना बंद कर दिया और लगान अदा करने से इनकार कर दिया।
केसरीसिंह का शासन (1914 ई. से आगे)
- 1914 ई. में पृथ्वीसिंह की मृत्यु हो गई।
- उसके अल्पवयस्क पुत्र केसरीसिंह को बिजौलिया का जागीरदार बनाया गया।
- केसरीसिंह के नाबालिग होने के कारण दरबार ने उसके लिए अमरसिंह राणावत को मुसरिम व सुसरिम नियुक्त किया।
- डूंगरसिंह भाटी को सहायक मुसरिम और नायब सुसरिम बनाया गया।
- ये दोनों अधिकारी किसानों के हितचिंतक थे, जिससे किसानों की स्थिति कुछ हद तक सुधरी।
विजयसिंह पथिक का प्रवेश (1916 ई.)
- बिजौलिया किसान आंदोलन में एक नया मोड़ तब आया जब क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक ने 1916 ई. में इसमें प्रवेश किया।
- पथिक ने आंदोलन को संगठित और राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया।
- उनके नेतृत्व में आंदोलन ने गति पकड़ी और किसानों की आवाज़ मेवाड़ दरबार तथा राष्ट्रीय मंच तक पहुँचने लगी।
विजयसिंह पथिक और बिजौलिया किसान आंदोलन
परिचय
राजस्थान का पहला संगठित किसान आंदोलन बिजौलिया किसान आंदोलन था, जिसने लगभग 44 वर्षों (1897–1941) तक किसानों की आवाज़ बुलंद की। इस आंदोलन को दिशा देने वाले महान नेता विजयसिंह पथिक को “राजस्थान के किसान आंदोलनों का जनक” कहा जाता है।
विजयसिंह पथिक का जीवन परिचय
- जन्म: 1882 ई., ग्राम गुठावल, जिला बुलंदशहर (उत्तर प्रदेश)
- बचपन का नाम: भूपसिंह
- पिता: हम्मीरसिंह
- माता: कमलादेवी
- 1907 ई. में वे क्रांतिकारी नेताओं शचीन्द्र सान्याल और रासबिहारी बोस के सम्पर्क में आए और क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय हो गए।
राजस्थान आगमन और गिरफ्तारी
- रासबिहारी बोस ने उन्हें राजस्थान भेजा ताकि वे यहाँ क्रांति का संगठन कर सकें।
- उन्हें खरखा ठाकुर गोपालसिंह की Academy का सहयोग मिला।
- अखिल भारतीय क्रांति का भेद खुल जाने पर पथिक को गिरफ्तार कर टॉडगढ़ के किले में कैद कर दिया गया।
- वे वहाँ से फरार होकर बिजौलिया पहुँचे।
विद्या प्रचारिणी सभा की स्थापना (1915 ई.)
- बिजौलिया में पथिक ने डूंगरसिंह भाटी और ईश्वरदान आसिया के सहयोग से विद्या प्रचारिणी सभा की स्थापना की।
- उद्देश्य: किसानों में शिक्षा और सामाजिक-राजनीतिक चेतना का प्रसार।
- इसी सभा के वार्षिक जलसे में साधु सीताराम ने पथिक को बिजौलिया किसान आंदोलन का नेतृत्व संभालने के लिए आमंत्रित किया।
किसान पंचायत बोर्ड की स्थापना (1917 ई.)
- 1917 ई. हरियाली अमावस्या के दिन पथिक ने बारीसाल गाँव में “ऊपरमाल पंच बोर्ड” (किसान पंचायत बोर्ड) की स्थापना की।
- इसके सरपंच श्री मन्ना पटेल बने।
- इसने बिजौलिया आंदोलन को एक मजबूत संगठन और नई दिशा दी।
आंदोलन का राष्ट्रीय प्रचार
- पथिक ने आंदोलन को पूरे देश में आधार बनाने का प्रयास किया।
- वे ‘प्रताप’ अख़बार के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी से मिले और अपने लेख प्रकाशित करवाए।
- आंदोलन में उनके साथ माणिक्यलाल वर्मा, साधु सीताराम दास, प्रेमचंद भील आदि नेता जुड़े।
- बाल गंगाधर तिलक ने किसानों की वीरता से प्रभावित होकर अपने अंग्रेजी पत्र “मराठा” में संपादकीय लिखा।
- माणिक्यलाल वर्मा द्वारा रचित “पंछीड़ा गीत” किसानों को जागृत करने में प्रभावी रहा।
गांधीजी का समर्थन
- फरवरी 1918 में पथिक कांग्रेस अधिवेशन, बंबई गए और गांधीजी से मिले।
- गांधीजी ने अपने सचिव महादेव देसाई को बिजौलिया भेजा और आंदोलन को नैतिक समर्थन दिया।
जाँच आयोग
- 1919 ई. में मेवाड़ सरकार ने वृंदलाल भट्टाचार्य आयोग गठित किया।
- अन्य सदस्य: अफजल अली हाकिम, अमरसिंह राणावत।
- आयोग ने किसानों की शिकायतें सही पाईं लेकिन ठिकाने के दबाव में कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई।
- 1921 ई. में ब्रिटिश सरकार ने उच्चस्तरीय समिति गठित की।
- अध्यक्ष: AGG रॉबर्ट हालैंड
- अन्य सदस्य: सचिव आगल्वी, मेवाड़ के दीवान प्रभाष चंद्र चटर्जी, सायर हाकिम बिहारीलाल।
- किसान पंचायत बोर्ड की ओर से प्रतिनिधि: मोतीचंद (सरपंच), नारायण पटेल (मंत्री), रामनारायण चौधरी, माणिक्यलाल वर्मा।
- परिणाम: 1922 में हालैंड के प्रयासों से किसानों और ठिकाने के बीच अस्थायी समझौता हुआ।
आंदोलन की आगे की यात्रा
- 1923 ई. – बिजौलिया के राव के विवाह में किसानों से बेगार लेने का प्रयास हुआ, जिससे संघर्ष फिर शुरू हुआ।
- 1927 ई. – बंदोबस्त अधिकारी ट्रेंच ने लगान की दरें बढ़ा दीं। किसानों ने इसका विरोध करते हुए अपनी ज़मीनों से इस्तीफे दे दिए।
- इसी समय विजयसिंह पथिक आंदोलन से अलग हो गए।
- नेतृत्व जमनालाल बजाज और हरिभाऊ उपाध्याय के हाथों में चला गया।
आंदोलन का अंत (1941 ई.)
- 1941 ई. में मेवाड़ के प्रधानमंत्री टी. विजयाराघवाचार्य ने इस समस्या का अंतिम समाधान किया।
- मोहनसिंह मेहता को विशेष रूप से बिजौलिया भेजा गया।
- मोहनसिंह मेहता ने किसानों और नेताओं (माणिक्यलाल वर्मा आदि) से बातचीत कर समस्याओं का समाधान करवाया।
- किसानों को उनकी ज़मीनें वापस मिलीं।
विशेष तथ्य
- यह भारत का पहला व्यापक, संगठित और सफल किसान आंदोलन था।
- अंजना देवी चौधरी (रामनारायण चौधरी की पत्नी) ने भी इस आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाई।
निष्कर्ष
बिजौलिया किसान आंदोलन केवल करों और बेगार के विरुद्ध संघर्ष नहीं था, बल्कि यह किसानों की एकता, संगठन और अधिकारों की गूँज थी। विजयसिंह पथिक और उनके सहयोगियों ने इस आंदोलन को नई दिशा दी, जिसने आगे चलकर राजस्थान और पूरे भारत में किसान आंदोलनों की नींव रखी।
बिजौलिया किसान आंदोलन FAQ
1. बिजौलिया किसान आंदोलन कब हुआ?
बिजौलिया किसान आंदोलन की शुरुआत 1897 ई. में हुई और यह लगभग 1941 ई. तक चला। यह राजस्थान का पहला संगठित और दीर्घकालिक किसान आंदोलन था।
2. बिजौलिया किसान आंदोलन कहाँ हुआ था?
यह आंदोलन वर्तमान राजस्थान के भीलवाड़ा ज़िले के बिजौलिया क्षेत्र में हुआ था।
3. बिजौलिया किसान आंदोलन का कारण क्या था?
- किसानों पर अत्यधिक करों का बोझ।
- बेगार प्रथा (बिना मजदूरी काम करवाना)।
- 84 प्रकार के दमनकारी कर।
- चंवरी कर (शादी पर कर) और तलवार बंधाई कर।
- किसानों की उपज पर ठिकानेदार का आधा हिस्सा लेना।
4. बिजौलिया किसान आंदोलन का नेतृत्व किसने किया?
- प्रारंभ में साधु सीताराम दास ने।
- बाद में आंदोलन का मुख्य नेतृत्व विजयसिंह पथिक, माणिक्यलाल वर्मा, नारायण लाल जोशी, हरिभाऊ उपाध्याय और जमनालाल बजाज ने किया।
5. विजयसिंह पथिक का इसमें क्या योगदान था?
- 1916 ई. में पथिक आंदोलन से जुड़े।
- उन्होंने किसान पंचायत बोर्ड की स्थापना की।
- आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचाया।
- गणेश शंकर विद्यार्थी के अखबार प्रताप में लेख छपवाकर इसकी चर्चा पूरे देश में कराई।
- गांधीजी और कांग्रेस तक आंदोलन की गूँज पहुँचाई।
6. बिजौलिया किसान आंदोलन का परिणाम क्या हुआ?
- किसानों की कई माँगें मानी गईं।
- बेगार प्रथा और कुछ कर समाप्त किए गए।
- किसानों में राजनीतिक व सामाजिक चेतना जागी।
- यह आंदोलन आगे चलकर राजस्थान और भारत के किसान आंदोलनों का आधार बना।
- अंततः 1941 ई. में किसानों को उनकी ज़मीनें वापस मिल गईं।
7. बिजौलिया किसान आंदोलन क्यों प्रसिद्ध है?
यह भारत का पहला व्यापक, संगठित और सफल किसान आंदोलन था, जिसने 44 वर्षों तक किसानों की आवाज़ को बुलंद किया।