संत परंपरा में संत कबीर, रैदास, मीरा और सूरदास की तरह संत दादूदयाल जी भी निर्गुण भक्ति धारा के महान प्रवर्तक माने जाते हैं। उन्होंने समाज में प्रेम, समानता और भाईचारे का संदेश दिया। दादूदयाल जी ने जाति-पांति, ऊँच-नीच और भेदभाव को दूर करने की शिक्षा दी।
संत दादूदयाल जी का जन्म और प्रारंभिक जीवन
- जन्म – 1544 ई. में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को
- जन्म स्थान – अहमदाबाद (गुजरात)
- लोक मान्यता के अनुसार दादूदयालजी साबरमती नदी में लोधीरामजी नामक एक ब्राह्मण को संन्यास रूप में मिले थे, इसलिए साबरमती नदी को दादू पंथ में ‘पुण्यवतीनी’ कहा जाता है।
- लोधीरामजी एवं उनकी पत्नी सावित्री देवी ने इनका पालन-पोषण किया था।
- उपनाम – ‘राजस्थान का कबीर’
- गुरु – बुढ्ढानजी (वृन्दावनदास)
- प्रधानपीठ – नारायण (जयपुर)
- स्थापना – दादू पंथ
संत दादूदयाल जी का राजस्थान आगमन
- दादूदयालजी ने 1574 ई. में सांभर में दादू पंथ/निर्गुण सम्प्रदाय/ब्रह्म सम्प्रदाय की स्थापना की थी।
- दादूदयालजी 19 वर्ष की आयु में राजस्थान आए।
- 1568 ई. में सांभर में इन्होंने प्रथम उपदेश दिया था।
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दादू पंथ की शिक्षाएँ
- निर्गुण ईश्वर की भक्ति
- जात-पात, ऊँच-नीच का विरोध
- समानता और भाईचारे पर जोर
- दिखावे, मूर्तिपूजा और आडंबरों का विरोध
- सत्संग, नाम-स्मरण और साधना पर बल
- उन्होंने निर्गुण भक्ति का संदेश दिया।
- इनके मंदिर को दादूद्वारा कहा जाता है।
‘अलख दरिया’ – दादू पंथ में सत्संग स्थल को ‘अलख दरिया’ कहते हैं।
दादूदयाल जी और मुगल सम्राट अकबर
1585 ई. में दादूदयालजी ने आमेर के राजा भगवंतदास के साथ फतेहपुर सीकरी (उत्तरप्रदेश) में मुगल सम्राट अकबर से मुलाकात की थी।
मृत्यु और समाधि
- 1602 ई. में दादूदयालजी नरैना या नारायणा (फुलेरा) आ गए थे।
- यहीं पर 1603 ई. में जेष्ठ कृष्ण अष्टमी को इनका निधन हुआ।
- दादूदयालजी के शव को पहाड़ियों में जिस स्थान पर समाधि रखी गई, उसे ‘दादूखोल’ या ‘दादूखोली’ कहा जाता है।
- दादूपंथ में मृत व्यक्ति को जल समाधि दी जाती है।
- दादूद्वारा में कब्र नहीं होती है, बल्कि साधु की अस्थियों को नदी में विसर्जित किया जाता है और मिट्टी से स्मृति चिन्ह (छतरी) बनाई जाती है।
मुख्य पर्व – फाल्गुन शुक्ल अष्टमी
दादू पंथ के पंचातीर्थ स्थल –
- कल्याणपुर
- सांभर
- आमेर
- नारायणा
- भैराना
दादूदयालजी के प्रमुख ग्रंथ –
- दादू री वाणी
- दादू रा दोहा
- दादूदयालजी के साहित्य की भाषा ढूँढाड़ी (सधुक्कड़ी) है।
- सुप्रसिद्ध ‘कायावली’ ग्रंथ की रचना दादूदयाल ने की।
दादूदयालजी की मृत्यु के पश्चात दादू पंथ 5 शाखाओं में विभक्त हो गया था, जो निम्नलिखित हैं –
(1) अस्थानधारी (उतराद्वार) – ये साधु जो राजस्थान को छोड़कर उत्तर भारत में दादू पंथ का प्रचार-प्रसार करने लगे। इस शाखा के संस्थापक दादूदयाल के शिष्य बनवारीदासजी थे।
(2) विरक्त – घूम-घूम कर दादू पंथ का उपदेश देने वाले साधु।
(3) खालसा – गढ़बदराजजी की आचार्य परम्परा से संबंधित साधु, जो मुख्य पीठ नारायण में रहते हैं।
(4) खाकी – वे साधु जो अपने शरीर पर भस्म लगाते हैं एवं लम्बी जटा रखते हैं।
(5) नागा – इस शाखा के प्रवर्तक सुन्दरदासजी थे। ये साधु कृषि व व्यापार का कार्य करते थे एवं शस्त्र रखते थे, सवाई जयसिंह ने इनके शस्त्र रखने पर रोक लगा दी थी। इस शाखा के संतों ने मराठा आक्रमण के समय जयपुर के शासक सवाई प्रतापसिंह की सहायता की थी।
- इन संतों के रहने के स्थान को छावनी कहते हैं।
- दादूद्वाराजी के कुल 152 शिष्य थे।
- इनमें से 100 शिष्य एकांतवासी (विरक्त) हुए अर्थात् उन्होंने दादूपंथ के प्रचार-प्रसार हेतु कोई कार्य नहीं किया।
- 52 शिष्यों ने धर्म-प्रचार करने हेतु द्वारों की स्थापना की, जो दादूद्वार के नाम से प्रसिद्ध हुए एवं ये 52 शिष्य स्तम्भ कहलाए। 52 शिष्यों में इनके दो पुत्र गारिबदासजी व मिखिलदासजी भी सम्मिलित थे।
दादूद्वार जी के प्रमुख शिष्य
(i) गारिबदासजी
- दादूद्वाराजी के पुत्र थे, जो दादूद्वाराजी की मृत्यु के पश्चात् गद्दी पर बैठे थे।
- प्रमुख रचनाएँ :-
- आध्यात्म बोध
- अनभे प्रबोध
- साखी पद
(ii) संत रज्जब जी
- जन्म – सांगानेर (जयपुर)
- प्रधान पीठ – सांगानेर (जयपुर)
- रज्जबजी परिणय सूत्र में बंधने जा रहे थे परन्तु रास्ते में दादूद्वाराजी के उपदेश सुनकर सांसारिक मोह-माया का त्याग करके दादूद्वाराजी के शिष्य बन गए।
- रज्जबजी जिन्दगी भर डूल्हे के वेश में रहे थे।
- रज्जबजी की मृत्यु सांगानेर में हुई थी।
- रज्जबजी के निवास स्थान को रज्जब द्वार कहा गया।
- इनके शिष्यों को रज्जबन्धी कहा जाता है।
- प्रमुख रचना :-
(1) रज्जब वाणी व सर्वंगी
(iii) सुन्दरदासजी
- जन्म – 1596 ई. में दौसा में
- पिता – परमानन्द जी खण्डेलवाल
- माता – सती
- प्रधान पीठ – दौसा
- सुन्दरदासजी को दूसरा शंकराचार्य कहा जाता है।
- संत सुन्दरदास ने दादू पंथ में नागा साधु वर्ग का प्रवर्तन किया।
- इनके द्वारा 42 ग्रंथों की रचना की गई है, जिनमें प्रमुख हैं :-
- सुन्दर विलास
- ज्ञान समुद्र
- ज्ञान सर्वेग्य
- सुन्दर सार
- सुन्दर ग्रंथावली
- इनके ग्रंथों की भाषा पिंगल थी।
- 1707 ई. में इनकी मृत्यु सांगानेर में हुई थी।
(iv) बखानजी
(v) मिखिलदासजी
(vi) माधोदासजी
संत दादूदयाल जी का जीवन समानता, भाईचारे और निर्गुण भक्ति का प्रतीक है। उन्होंने समाज को यह संदेश दिया कि सच्चा धर्म किसी जाति-पांति से बंधा नहीं होता, बल्कि मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है। आज भी उनके उपदेश और दादू पंथ समाज में मार्गदर्शन का कार्य कर रहे हैं।
FAQs
Q1. संत दादूदयाल जी का जन्म कब और कहाँ हुआ था?
Ans: संत दादूदयाल जी का जन्म 1544 ई. में गुजरात के अहमदाबाद में हुआ था।
Q2. दादूदयाल जी ने कौन सा पंथ स्थापित किया था?
Ans: उन्होंने 1574 ई. में सांभर (राजस्थान) में दादू पंथ/निर्गुण सम्प्रदाय की स्थापना की।
Q3. दादूदयाल जी के प्रमुख शिष्य कौन थे?
Ans: उनके प्रमुख शिष्य थे – गारिबदास जी, रज्जब जी, सुन्दरदास जी, माधोदास जी और मिखिलदास जी।
Q4. संत दादूदयाल जी की मृत्यु कहाँ हुई थी?
Ans: 1603 ई. में नारायणा (फुलेरा, जयपुर) में उनकी मृत्यु हुई और वहीं उनकी समाधि (दादूखोली) स्थित है।
Q5. दादू पंथ की शाखाएँ कितनी हैं?
Ans: दादू पंथ पाँच शाखाओं में विभक्त है – खालसा, विरक्त, अस्थानधारी (उत्तरद्वार), खाकी और नागा।