चितौड़ के प्रसिद्ध तीन साके
चितौड़ का प्रथम साका –
1303 ई. में अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण, उस समय चितौड़ के शासक रावल रतनसिंह थे।
- चितौड़ का प्रथम साका 26 अगस्त 1303 ई. में हुआ।
- चितौड़ का दूसरा साका 8 मार्च 1535 ई. में हुआ।
- चितौड़ का तीसरा साका 25 फरवरी 1568 ई. में हुआ।
- 26 अगस्त 1303 ई. में रानी पद्मिनी व अन्य रानियों के नेतृत्व में चितौड़ का प्रथम जौहर हुआ।
- रावल रतनसिंह ने गोरा – बादल के साथ केसरिया किया तथा वीरगति को प्राप्त हुए।
- अंत में इस युद्ध में अलाउद्दीन खिलजी ने विजय प्राप्त की।
- अलाउद्दीन खिलजी ने दुर्ग का कार्यभार अपने पुत्र खिज्र खां को सौंपकर चितौड़ का नाम खिज्राबाद रख दिया।
- चितौड़ के प्रथम साका व इस युद्ध का वर्णन हमें अमीर खुसरो के ग्रंथ तारीख ए अलाई में मिलता है।
- कुछ समय बाद खिज्र खां ने चित्तौड़ दुर्ग का कार्यभार जालौर के कान्हड़दे सोनगरा/चौहान के भाई मालदेव मुंछाला को सौंप दिया था।
- 1326 ई. में सिसोदा के राणा हम्मीर ने सोनगरा चौहानों से चितौड़ किला छीन लिया।
चितौड़गढ़ का प्रथम साका (1303 ई.) – एक ऐतिहासिक वर्णन
(राजपूती शौर्य, बलिदान और स्वाभिमान की अमर गाथा)
चितौड़गढ़ का प्रथम साका भारत के इतिहास का एक महानतम वीरता और बलिदान का उदाहरण है।
यह साका 1303 ई. में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण के दौरान हुआ।
इस युद्ध और साके का केन्द्र बिंदु बनीं — महारानी पद्मिनी (या पद्मावती) और मेवाड़ की स्वतंत्रता एवं स्वाभिमान की रक्षा।
पात्र | विवरण |
---|---|
रावल रतन सिंह | चित्तौड़गढ़ के शासक, साहसी और स्वाभिमानी |
रानी पद्मिनी (पद्मावती) | असाधारण सुंदरता और बुद्धिमत्ता की प्रतीक |
अलाउद्दीन खिलजी | दिल्ली का सुल्तान, साम्राज्यवादी और महत्वाकांक्षी शासक |
गोरा और बादल | मेवाड़ के वीर योद्धा, जिन्होंने रानी की रक्षा में बलिदान दिया |
प्रथम साका की पृष्ठभूमि:
अलाउद्दीन खिलजी ने पद्मिनी की सुंदरता की कथा सुनी और उसे पाने की इच्छा प्रकट की।
उसने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण करने का मन बनाया, यह सोचकर कि यदि पद्मिनी को प्राप्त कर लिया जाए तो वह “भारत का विजेता और प्रेम का सम्राट” कहलाएगा।
रणनीति और छल:
अलाउद्दीन ने मित्रता और भेंट का प्रस्ताव भेजा और रावल रतन सिंह को छल से कैद कर लिया।
शर्त रखी: “अगर रानी पद्मिनी को मेरे हवाले किया जाए, तो रावल को छोड़ दिया जाएगा।”
पद्मिनी की बुद्धिमत्ता:
रानी ने योजना बनाई: 150 सजी-संवरी दासियों की पालकियों में वीर सैनिक भेजे गए।
इन सैनिकों ने रावल को छुड़ाया, लेकिन जब वे लौट रहे थे तो दिल्ली की सेना ने पीछा किया।
यहीं पर गोरा और बादल जैसे वीर योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए।
साका और जौहर:
जब अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर पूर्ण आक्रमण कर दिया और पराजय निश्चित हो गई —
तब रानी पद्मिनी और सैकड़ों राजपूत स्त्रियों ने अग्निकुंड में जौहर किया (सम्मानपूर्वक आत्मदाह)।
इसके बाद पुरुषों ने केसरिया बाना पहनकर अंतिम युद्ध (साका) किया और वीरगति को प्राप्त हुए।
साका का अर्थ:
“जब दुर्ग का पतन निश्चित हो जाता है, तो स्त्रियाँ जौहर करती हैं और पुरुष अंतिम युद्ध करते हैं। यही ‘साका’ कहलाता है।”
परिणाम:
घटक | विवरण |
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जौहर | पद्मिनी और हजारों रानियों ने आत्मदाह कर अपनी लाज बचाई |
साका | रावल रतन सिंह और राजपूतों ने अंतिम युद्ध में प्राण त्यागे |
चित्तौड़ पर कब्ज़ा | अलाउद्दीन ने दुर्ग पर अधिकार किया, परंतु पद्मिनी को न पा सका |
गौरव की जीत | भौतिक हार के बावजूद राजपूती अस्मिता और गौरव की विजय हुई |
इतिहास और साहित्य में स्थान:
मलिक मोहम्मद जायसी की काव्य-कृति “पद्मावत” (1540) में यह कथा प्रमुखता से वर्णित है।
इतिहासकार इस कथा को लोक परंपरा और साहित्य का भाग मानते हैं, किंतु चित्तौड़ का प्रथम साका ऐतिहासिक रूप से सत्य है।
स्मृति और प्रेरणा:
यह साका राजपूत वीरता, नारी गरिमा और आत्मगौरव की प्रतीक बन गया है।
आज भी चित्तौड़गढ़ दुर्ग की दीवारें इस वीरता की गवाही देती हैं।
निष्कर्ष:
चित्तौड़ का प्रथम साका केवल एक युद्ध नहीं, बल्कि संस्कृति, अस्मिता, और आत्मसम्मान की रक्षा में किया गया सामूहिक बलिदान था।
यह भारत के इतिहास में एक अमर प्रेरणा है — कि पराजय भौतिक हो सकती है, आत्मा की नहीं।
चितौड़ का दूसरा साका –
1535 ई. में गुजरात के शासक बहादुरशाह के सेनापति रूमी खां का चितौड़ पर आक्रमण, उस समय चितौड़ के महाराणा विक्रमादित्य थे।
- चितौड़ के महाराणा विक्रमादित्य आक्रमण के समय अल्प आयु के थे। महारानी कर्मावती ने महाराणा विक्रमादित्य व छोटे भाई उदयसिंह को उनके ननिहाल बूंदी भेज दिया।
- 8 मार्च 1535 ई. को हाड़ी रानी कर्मावती व महाराणा विक्रमादित्य की रानी जवाहर बाई के नेतृत्व चितौड़ का दूसरा में जौहर हुआ।
- चितौड़ के द्वितीय साके में ही महारानी कर्मावती ने हुमायू को राखी भेजी थी, लेकीन हुमायूं के आपने से पूर्व ही साका हो गया था।
- प्रतापगढ़ के रावत बाघसिंह के नेतृत्व में राजपूत सैनिकों ने केसरिया किया। रावत बाघसिंह इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।
- चितौड़ के दूसरे साके का वर्णन श्यामलदास के ग्रंथ वीर विनोद में मिलता है।
चितौड़ का तीसरा साका – 1568 ई. में अकबर ने चितौड़ पर आक्रमण किया। उस समय चितौड़ के महाराणा उदयसिंह थे।
- महाराणा उदयसिंह ने जयमल राठौड़ को चितौड़ किले का भार छोड़कर स्वयं गोगुंदा की पहाड़ियों में चले गए।
- जयमल राठौड़ व पत्ता सिसोदिया महाराणा उदयसिंह के सेनापति थे।
- 25 फरवरी 1568 ई. में जयमल राठौड़ व पत्ता सिसोदिया के नेतृत्व में केसरिया हुआ।
- पत्ता सिसोदिया की रानी फूल कंवर के नेतृत्व में स्त्रियों ने चितौड़ का तीसरा जौहर किया।
- इस युद्ध में कल्ला जी राठौड़ दूल्हे के भेष में युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
- युद्ध के बाद अकबर ने चितौड़ में कत्ल –ए –आम का आदेश दिया, जिसमें 30000 बेगुनाह नागरिक मारे गए।
- चितौड़ किले में जयमल राठौड़ व कल्ला राठौड़ की छतरियां बनी है। चितौड़ किले के अन्तिम दरवाजे रामपोल के सामने पत्ता सिसोदिया का स्मारक बना हुआ है।
- इस युद्ध के बाद अकबर ने चितौड़ किला आसफ खां को सौंपकर अजमेर चला गया।
- चितौड़ के तीसरे साके का वर्णन अबुल फजल के प्रसिद्ध ग्रंथ अकबरनामा में मिलता है।
चितौड़ का तीसरा साका (1568 ई.) – महाराणा उदय सिंह, अकबर और राजपूत वीरता की अंतिम गाथा
(बलिदान, जौहर और केसरिया की अंतिम लौ)
परिचय:
चितौड़गढ़ का तीसरा और अंतिम साका 1567–68 ई. के बीच हुआ, जब मुगल सम्राट अकबर ने चित्तौड़ पर हमला किया।
यह साका भले ही चित्तौड़ की राजनीतिक हार का प्रतीक था, लेकिन राजपूतों के लिए यह शौर्य, आत्मगौरव और बलिदान का सबसे उज्जवल उदाहरण बन गया।
मुख्य पात्र:
पात्र | विवरण |
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महाराणा उदय सिंह द्वितीय | मेवाड़ के शासक, जिन्होंने युद्ध से पूर्व किला छोड़ दिया |
जयमल राठौड़ | मेड़ता के शूरवीर योद्धा, चित्तौड़ की रक्षा के मुख्य सेनानायक |
फत्ता सिसोदिया | शूरवीर राजपूत योद्धा, जयमल के सहयोगी |
अकबर | मुग़ल सम्राट, जिसने चित्तौड़ को मुग़ल साम्राज्य में लाने हेतु घेरा डाला |
इतिहास की समयरेखा:
20 अक्टूबर 1567 ई.: अकबर ने चित्तौड़ को घेर लिया।
लगभग 4 महीने तक घेरा चला — भीषण युद्ध हुआ।
23 फरवरी 1568 ई.: चित्तौड़ की दीवारें टूटीं, साका और जौहर हुआ।
पृष्ठभूमि:
महाराणा उदय सिंह ने युद्ध की बागडोर अपने वीरों को सौंप दी और स्वयं अपने उत्तराधिकारी (राणा प्रताप) को लेकर उदयपुर की ओर चले गए।
दुर्ग की रक्षा की जिम्मेदारी जयमल और फत्ता को दी गई।
जयमल–फत्ता की वीरता:
जयमल राठौड़ और फत्ता सिसोदिया ने अपनी छोटी सी सेना के साथ हजारों मुग़ल सैनिकों को रोका।
अकबर स्वयं युद्ध में उपस्थित था और कहा जाता है कि उसने जयमल को बंदूक से घायल किया।
जौहर और साका:
क्रिया | विवरण |
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जौहर | हजारों स्त्रियों ने अग्निकुंड में कूदकर सम्मान की रक्षा की |
साका | जयमल और फत्ता सहित राजपूतों ने अंतिम युद्ध में केसरिया बाना पहनकर बलिदान दिया |
दुर्ग पतन | मुग़ल सेना ने दुर्ग पर अधिकार कर लिया, किंतु जीत निर्जीव चित्तौड़ की थी |
घटना के प्रमुख तथ्य:
बिंदु | विवरण |
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स्थान | चित्तौड़गढ़ दुर्ग, राजस्थान |
अकबर की सेना | लगभग 60,000 सैनिक |
राजपूत योद्धा | केवल 8,000-10,000, परंतु अभूतपूर्व वीरता |
जौहर करने वाली स्त्रियाँ | अनुमानतः 10,000+ |
शहीद स्मारक | जयमल और फत्ता की छतरियाँ चित्तौड़गढ़ के द्वार पर बनी हुई हैं |
परिणाम:
चित्तौड़ पर मुग़लों का नियंत्रण हो गया।
परंतु अकबर को एक वीरगति प्राप्त नगरी और राख में बदली हुई अस्मिता ही हाथ लगी।
इस साके के बाद चित्तौड़ ने कई वर्षों तक पुनः सिर न उठाया, लेकिन राणा प्रताप ने इसकी लौ जलाए रखी।
विरासत और प्रेरणा:
जयमल–फत्ता की वीरता को अकबर ने भी स्वीकार किया — यही कारण है कि उनकी मूर्ति जोधपुर के मेहरानगढ़ और दिल्ली के किले में भी बनी थी।
राजपूत लोकगीतों और कवित्तों में कहा गया:
"जो ना हारे रण में, सो हारे गजधर,
जयमल–फत्ता छूटे, तब डोल्या चित्तौड़ कसर..."
(भाव: जब तक जयमल और फत्ता जीवित थे, चित्तौड़ अडिग था)
निष्कर्ष:
चित्तौड़ का तीसरा साका केवल एक युद्ध नहीं था, यह वीरता की अंतिम ऊँचाई था —
जहाँ असंख्य राजपूतों ने धरती माता, धर्म और सम्मान के लिए प्राणों की आहुति दी,
और स्त्रियों ने जौहर की ज्वालाओं में अपनी अस्मिता की लौ बुझने नहीं दी