चितौड़ के प्रसिद्ध तीन साके: 1303, 1535 और 1567–68 का संक्षिप्त इतिहास

चितौड़ के प्रसिद्ध तीन साके

चितौड़ का प्रथम साका –

1303 ई. में अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण, उस समय चितौड़ के शासक रावल रतनसिंह थे। 

नोट :–
  • चितौड़ का प्रथम साका 26 अगस्त 1303 ई. में हुआ।
  • चितौड़ का दूसरा साका 8 मार्च 1535 ई. में हुआ।
  • चितौड़ का तीसरा साका 25 फरवरी 1568 ई. में हुआ।
  • 26 अगस्त 1303 ई. में रानी पद्मिनी व अन्य रानियों के नेतृत्व में चितौड़ का प्रथम जौहर हुआ। 
  • रावल रतनसिंह ने गोरा – बादल के साथ केसरिया किया तथा वीरगति को प्राप्त हुए। 
  • अंत में इस युद्ध में अलाउद्दीन खिलजी ने विजय प्राप्त की। 
  • अलाउद्दीन खिलजी ने दुर्ग का कार्यभार अपने पुत्र खिज्र खां को सौंपकर चितौड़ का नाम खिज्राबाद रख दिया। 
  • चितौड़ के प्रथम साका व इस युद्ध का वर्णन हमें अमीर खुसरो के ग्रंथ तारीख ए अलाई में मिलता है। 
  • कुछ समय बाद खिज्र खां ने चित्तौड़ दुर्ग का कार्यभार जालौर के कान्हड़दे सोनगरा/चौहान के भाई मालदेव मुंछाला को सौंप दिया था। 
  • 1326 ई. में सिसोदा के राणा हम्मीर ने सोनगरा चौहानों से चितौड़ किला छीन लिया।

चितौड़गढ़ का प्रथम साका (1303 ई.) – एक ऐतिहासिक वर्णन

(राजपूती शौर्य, बलिदान और स्वाभिमान की अमर गाथा)

चितौड़गढ़ का प्रथम साका भारत के इतिहास का एक महानतम वीरता और बलिदान का उदाहरण है।
यह साका 1303 ई. में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण के दौरान हुआ।
इस युद्ध और साके का केन्द्र बिंदु बनीं — महारानी पद्मिनी (या पद्मावती) और मेवाड़ की स्वतंत्रता एवं स्वाभिमान की रक्षा

पात्रविवरण
रावल रतन सिंहचित्तौड़गढ़ के शासक, साहसी और स्वाभिमानी
रानी पद्मिनी (पद्मावती)असाधारण सुंदरता और बुद्धिमत्ता की प्रतीक
अलाउद्दीन खिलजीदिल्ली का सुल्तान, साम्राज्यवादी और महत्वाकांक्षी शासक
गोरा और बादलमेवाड़ के वीर योद्धा, जिन्होंने रानी की रक्षा में बलिदान दिया

प्रथम साका की पृष्ठभूमि:

  • अलाउद्दीन खिलजी ने पद्मिनी की सुंदरता की कथा सुनी और उसे पाने की इच्छा प्रकट की

  • उसने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण करने का मन बनाया, यह सोचकर कि यदि पद्मिनी को प्राप्त कर लिया जाए तो वह “भारत का विजेता और प्रेम का सम्राट” कहलाएगा।

रणनीति और छल:

  • अलाउद्दीन ने मित्रता और भेंट का प्रस्ताव भेजा और रावल रतन सिंह को छल से कैद कर लिया।

  • शर्त रखी: “अगर रानी पद्मिनी को मेरे हवाले किया जाए, तो रावल को छोड़ दिया जाएगा।”

पद्मिनी की बुद्धिमत्ता:

  • रानी ने योजना बनाई: 150 सजी-संवरी दासियों की पालकियों में वीर सैनिक भेजे गए।

  • इन सैनिकों ने रावल को छुड़ाया, लेकिन जब वे लौट रहे थे तो दिल्ली की सेना ने पीछा किया

  • यहीं पर गोरा और बादल जैसे वीर योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए।

साका और जौहर:

  • जब अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर पूर्ण आक्रमण कर दिया और पराजय निश्चित हो गई —

  • तब रानी पद्मिनी और सैकड़ों राजपूत स्त्रियों ने अग्निकुंड में जौहर किया (सम्मानपूर्वक आत्मदाह)।

  • इसके बाद पुरुषों ने केसरिया बाना पहनकर अंतिम युद्ध (साका) किया और वीरगति को प्राप्त हुए।

साका का अर्थ:

“जब दुर्ग का पतन निश्चित हो जाता है, तो स्त्रियाँ जौहर करती हैं और पुरुष अंतिम युद्ध करते हैं। यही ‘साका’ कहलाता है।”

परिणाम:

घटकविवरण
जौहरपद्मिनी और हजारों रानियों ने आत्मदाह कर अपनी लाज बचाई
साकारावल रतन सिंह और राजपूतों ने अंतिम युद्ध में प्राण त्यागे
चित्तौड़ पर कब्ज़ाअलाउद्दीन ने दुर्ग पर अधिकार किया, परंतु पद्मिनी को न पा सका
गौरव की जीतभौतिक हार के बावजूद राजपूती अस्मिता और गौरव की विजय हुई

इतिहास और साहित्य में स्थान:

  • मलिक मोहम्मद जायसी की काव्य-कृति “पद्मावत” (1540) में यह कथा प्रमुखता से वर्णित है।

  • इतिहासकार इस कथा को लोक परंपरा और साहित्य का भाग मानते हैं, किंतु चित्तौड़ का प्रथम साका ऐतिहासिक रूप से सत्य है।

स्मृति और प्रेरणा:

  • यह साका राजपूत वीरता, नारी गरिमा और आत्मगौरव की प्रतीक बन गया है।

  • आज भी चित्तौड़गढ़ दुर्ग की दीवारें इस वीरता की गवाही देती हैं

निष्कर्ष:

चित्तौड़ का प्रथम साका केवल एक युद्ध नहीं, बल्कि संस्कृति, अस्मिता, और आत्मसम्मान की रक्षा में किया गया सामूहिक बलिदान था।
यह भारत के इतिहास में एक अमर प्रेरणा है — कि पराजय भौतिक हो सकती है, आत्मा की नहीं।

चितौड़ का दूसरा साका –

1535 ई. में गुजरात के शासक बहादुरशाह के सेनापति रूमी खां का चितौड़ पर आक्रमण, उस समय चितौड़ के महाराणा विक्रमादित्य थे। 

  • चितौड़ के महाराणा विक्रमादित्य आक्रमण के समय अल्प आयु के थे। महारानी कर्मावती ने महाराणा विक्रमादित्य व छोटे भाई उदयसिंह को उनके ननिहाल बूंदी भेज दिया। 
  • 8 मार्च 1535 ई. को हाड़ी रानी कर्मावती व महाराणा विक्रमादित्य की रानी जवाहर बाई के नेतृत्व चितौड़ का दूसरा में जौहर हुआ। 
  • चितौड़ के द्वितीय साके में ही महारानी कर्मावती ने हुमायू को राखी भेजी थी, लेकीन हुमायूं के आपने से पूर्व ही साका हो गया था। 
  • प्रतापगढ़ के रावत बाघसिंह के नेतृत्व में राजपूत सैनिकों ने केसरिया किया। रावत बाघसिंह इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। 
  • चितौड़ के दूसरे साके का वर्णन श्यामलदास के ग्रंथ वीर विनोद में मिलता है।
 
 
 

चितौड़ का दूसरा साका (1535 ई.) – रानी कर्णावती और गुजरात के बहादुर शाह की कथा

(राजपूती आत्मगौरव, जौहर और युद्धबलिदान की दूसरी अमर गाथा)

परिचय:

चितौड़गढ़ का दूसरा साका सन् 1535 ई. में हुआ, जब गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया।
इस बार चित्तौड़ की रक्षा का भार रानी कर्णावती और वीर राजपूतों पर था।
यह साका भी पहले की तरह जौहर, साका और बलिदान का प्रतीक बन गया।

मुख्य पात्र:

पात्रपरिचय
रानी कर्णावतीराणा साँगा की विधवा रानी, मेवाड़ की संरक्षिका और वीरांगना
राणा विक्रमादित्यराणा साँगा का पुत्र, चित्तौड़ का युवा शासक
बहादुर शाहगुजरात का सुल्तान, महत्वाकांक्षी और विस्तारवादी
जयमल और फत्ताचित्तौड़ के योद्धा (इनका प्रमुख योगदान तीसरे साके में था)

साके की पृष्ठभूमि:

  • राणा साँगा (1509–1528) की मृत्यु के बाद मेवाड़ राजनीतिक रूप से कमजोर हो गया।

  • राणा विक्रमादित्य अभी अल्पवयस्क और अयोग्य शासक थे, अतः राजनीतिक नेतृत्व रानी कर्णावती के हाथ में आया।

  • बहादुर शाह ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया

रक्षार्थ सहायता का प्रयास:

  • रानी कर्णावती ने दिल्ली के मुग़ल शासक हुमायूं को एक राखी भेजी (भाई मानकर), सहायता की याचना की।

  • किंतु जब तक हुमायूं सहायता लेकर पहुँचा, तब तक चित्तौड़ बहादुर शाह के हाथों घिर चुका था

युद्ध और विनाश:

  • चित्तौड़ के वीर राजपूतों ने भीषण युद्ध किया, परंतु संख्या और शक्ति में कम थे।

  • रानी कर्णावती ने अंतिम निर्णय लिया — जौहर और साका का।

जौहर और साका:

क्रियाविवरण
जौहररानी कर्णावती और सैकड़ों स्त्रियों ने आत्मगौरव की रक्षा हेतु जौहर किया
साकापुरुषों ने केसरिया बाना पहनकर अंतिम युद्ध में बलिदान दिया
परिणामचित्तौड़ पर बहादुर शाह का अधिकार हो गया, पर उसे चित्तौड़ की राख ही मिली

हुमायूं का आगमन:

  • हुमायूं सहायता लेकर चित्तौड़ पहुँचा, पर बहुत देर हो चुकी थी

  • उसने बहादुर शाह को पीछे हटाया, परंतु चित्तौड़ का विनाश हो चुका था

महत्वपूर्ण तथ्य:

बिंदुविवरण
 वर्ष1535 ई.
 स्थानचित्तौड़गढ़ दुर्ग, राजस्थान
 जौहर स्थलचित्तौड़ दुर्ग के भीतर स्थित ‘जौहर कुंड’
विरासतरानी कर्णावती को राजपूत नारी सम्मान और त्याग की प्रतीक माना जाता है

इतिहास में स्थान:

  • यह साका दिखाता है कि स्त्रियाँ भी युद्धभूमि में पुरुषों से कम नहीं थीं, भले ही वे प्रत्यक्ष युद्ध न लड़ी हों, पर आत्मगौरव की रक्षा में सर्वोच्च बलिदान देती थीं

  • रानी कर्णावती की राजनीतिक दूरदर्शिता (राखी भेजना) भी एक ऐतिहासिक पहल मानी जाती है।

निष्कर्ष:

चित्तौड़ का दूसरा साका केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि यह स्त्री शक्ति, आत्मगौरव, बलिदान और वीरता की प्रतिमा है।
रानी कर्णावती ने दिखा दिया कि जब धर्म, संस्कृति और सम्मान की बात आती है, तो राजपूत नारियाँ भी धधकते अग्निकुंड में कूदने से पीछे नहीं हटतीं

चितौड़ का तीसरा साका – 1568 ई. में अकबर ने चितौड़ पर आक्रमण किया। उस समय चितौड़ के महाराणा उदयसिंह थे।

  • महाराणा उदयसिंह ने जयमल राठौड़ को चितौड़ किले का भार छोड़कर स्वयं गोगुंदा की पहाड़ियों में चले गए।
  • जयमल राठौड़ व पत्ता सिसोदिया महाराणा उदयसिंह के सेनापति थे।
  • 25 फरवरी 1568 ई. में जयमल राठौड़ व पत्ता सिसोदिया के नेतृत्व में केसरिया हुआ।
  • पत्ता सिसोदिया की रानी फूल कंवर के नेतृत्व में स्त्रियों ने चितौड़ का तीसरा जौहर किया।
  • इस युद्ध में कल्ला जी राठौड़ दूल्हे के भेष में युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
  • युद्ध के बाद अकबर ने चितौड़ में कत्ल –ए –आम का आदेश दिया, जिसमें 30000 बेगुनाह नागरिक मारे गए।
  • चितौड़ किले में जयमल राठौड़ व कल्ला राठौड़ की छतरियां बनी है। चितौड़ किले के अन्तिम दरवाजे रामपोल के सामने पत्ता सिसोदिया का स्मारक बना हुआ है।
  • इस युद्ध के बाद अकबर ने चितौड़ किला आसफ खां को सौंपकर अजमेर चला गया।
  • चितौड़ के तीसरे साके का वर्णन अबुल फजल के प्रसिद्ध ग्रंथ अकबरनामा में मिलता है।
 

चितौड़ का तीसरा साका (1568 ई.) – महाराणा उदय सिंह, अकबर और राजपूत वीरता की अंतिम गाथा

(बलिदान, जौहर और केसरिया की अंतिम लौ)

परिचय:

चितौड़गढ़ का तीसरा और अंतिम साका 1567–68 ई. के बीच हुआ, जब मुगल सम्राट अकबर ने चित्तौड़ पर हमला किया।
यह साका भले ही चित्तौड़ की राजनीतिक हार का प्रतीक था, लेकिन राजपूतों के लिए यह शौर्य, आत्मगौरव और बलिदान का सबसे उज्जवल उदाहरण बन गया।

मुख्य पात्र:

पात्रविवरण
महाराणा उदय सिंह द्वितीयमेवाड़ के शासक, जिन्होंने युद्ध से पूर्व किला छोड़ दिया
जयमल राठौड़मेड़ता के शूरवीर योद्धा, चित्तौड़ की रक्षा के मुख्य सेनानायक
फत्ता सिसोदियाशूरवीर राजपूत योद्धा, जयमल के सहयोगी
अकबरमुग़ल सम्राट, जिसने चित्तौड़ को मुग़ल साम्राज्य में लाने हेतु घेरा डाला

इतिहास की समयरेखा:

  • 20 अक्टूबर 1567 ई.: अकबर ने चित्तौड़ को घेर लिया।

  • लगभग 4 महीने तक घेरा चला — भीषण युद्ध हुआ।

  • 23 फरवरी 1568 ई.: चित्तौड़ की दीवारें टूटीं, साका और जौहर हुआ।

पृष्ठभूमि:

  • महाराणा उदय सिंह ने युद्ध की बागडोर अपने वीरों को सौंप दी और स्वयं अपने उत्तराधिकारी (राणा प्रताप) को लेकर उदयपुर की ओर चले गए

  • दुर्ग की रक्षा की जिम्मेदारी जयमल और फत्ता को दी गई।

जयमल–फत्ता की वीरता:

  • जयमल राठौड़ और फत्ता सिसोदिया ने अपनी छोटी सी सेना के साथ हजारों मुग़ल सैनिकों को रोका

  • अकबर स्वयं युद्ध में उपस्थित था और कहा जाता है कि उसने जयमल को बंदूक से घायल किया

जौहर और साका:

क्रियाविवरण
जौहरहजारों स्त्रियों ने अग्निकुंड में कूदकर सम्मान की रक्षा की
साकाजयमल और फत्ता सहित राजपूतों ने अंतिम युद्ध में केसरिया बाना पहनकर बलिदान दिया
दुर्ग पतनमुग़ल सेना ने दुर्ग पर अधिकार कर लिया, किंतु जीत निर्जीव चित्तौड़ की थी

घटना के प्रमुख तथ्य:

बिंदुविवरण
 स्थानचित्तौड़गढ़ दुर्ग, राजस्थान
 अकबर की सेनालगभग 60,000 सैनिक
 राजपूत योद्धाकेवल 8,000-10,000, परंतु अभूतपूर्व वीरता
जौहर करने वाली स्त्रियाँअनुमानतः 10,000+
 शहीद स्मारकजयमल और फत्ता की छतरियाँ चित्तौड़गढ़ के द्वार पर बनी हुई हैं

परिणाम:

  • चित्तौड़ पर मुग़लों का नियंत्रण हो गया।

  • परंतु अकबर को एक वीरगति प्राप्त नगरी और राख में बदली हुई अस्मिता ही हाथ लगी।

  • इस साके के बाद चित्तौड़ ने कई वर्षों तक पुनः सिर न उठाया, लेकिन राणा प्रताप ने इसकी लौ जलाए रखी।

विरासत और प्रेरणा:

  • जयमल–फत्ता की वीरता को अकबर ने भी स्वीकार किया — यही कारण है कि उनकी मूर्ति जोधपुर के मेहरानगढ़ और दिल्ली के किले में भी बनी थी।

  • राजपूत लोकगीतों और कवित्तों में कहा गया:

"जो ना हारे रण में, सो हारे गजधर,
जयमल–फत्ता छूटे, तब डोल्या चित्तौड़ कसर..."
(भाव: जब तक जयमल और फत्ता जीवित थे, चित्तौड़ अडिग था)

निष्कर्ष:

चित्तौड़ का तीसरा साका केवल एक युद्ध नहीं था, यह वीरता की अंतिम ऊँचाई था —
जहाँ असंख्य राजपूतों ने धरती माता, धर्म और सम्मान के लिए प्राणों की आहुति दी,
और स्त्रियों ने जौहर की ज्वालाओं में अपनी अस्मिता की लौ बुझने नहीं दी

 
 

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